एक समय था मेरा भी,जब मैं चमचमाती हुई शोरूम में खड़ी थी…मुझे भी लोग देखने आते थे…एक दिन मुझे मेरे मालिक ने एजेंसी में देखा परखा और कीमत अदा कर मुझे घर ले आये…घर आते ही मुझपर कुमकुम से स्वास्तिक चिन्ह बनाया गया मेरी आरती उतारी गई…घर के लड़के मुझे देखकर बेहद खुश थे…मेरा मालिक मेरे गद्देदार सीट पर बैठ कर खुद को शहंशाह समझता था…लोग मेरे मालिक से मेरे माइलेज पिकअप की बात करते थे…मैं भी खूब इठलाती थी मुझे भी अपने चौड़े टायर दमदार इंजन पर बहुत गुमान था…सड़को पर भी खूब मजे से दौड़ती रही…समय बदला… साल बीता धीरे-धीरे मेरे इंजन में खराबी आने लगी…मेरे टायर घिसने लगे मेरा रंग अब बदरंग होने लगा…मेरे अंदर खराबी आने पर मेरा डॉक्टर यानी मिस्त्री भी धीरे धीरे तंग आने लगा…मालिक से मेरे खराब परफॉमेंस पर अफसोस जताने लगा…अब मेरा जलवा कम बहुत कम होने लगा…रोड पर मेरा जाना कम होना शुरू हो गया…मेरा मालिक अब मुझसे तंग रहने लगा…फिर मेरे लिए एक सौतन (नई बाइक) ले आया…धीरे धीरे मैं उपेक्षित रहने लगी…मेरी पूछ अब न के बराबर थी…अब मैं अपने मालिक के किसी काम की न थी…मैं बूढ़ी हो चुकी थी…मैं एक किनारे कोने में पड़ी रहने लगी… धीरे धीरे मेरे टायर खत्म हो गए थे मेरे पुर्जों में जंग लग गई अब मैं कबाड़ हो गयी थी।
शायद मृतप्राय ….और मृत आदमी इस दुनियां के लिए अछूत होता है…क्योंकि वह किसी काम का नही होता…मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि बेकार और बिना काम का व्यक्ति हो या वस्तु…फेंक दी जाती है।
इसलिए जीवन के अंतिम क्षणों तक काबिल रहिये वरना मतलबी समाज मेरी तरह आपको भी किनारे फेंक देगा।

इस आलेख को विनय मौर्या जी के फेसबुक वाल से साभार लिया गया है।

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